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नक्सलवाद
यूँ तो सामाजिक जीवन में हर इंसान सुकून भरी जिंदगी जीना चाहता है, लेकिन अंदाजा लगाइये कि उस व्यक्ति की जिंदगी में कितनी पीड़ा होगी जिसकी हर सुबह-शाम डर में ही गुज़रती है। इतना ही नहीं, अगर किसी व्यक्ति को बिना वजह अपनों को खोना पड़े तो, यह न केवल चिंता का विषय है बल्कि, यह बैठकर मंथन करने वाली बात है कि हम कैसे समाज, कैसे परिवेश और कैसे वातावरण में जिंदगी जीने को मजबूर हैं।
पिछले तीन सालों की बात करें तो इस दौरान हुए नक्सली हमलों में हज़ारों लोगों की मौतें हुईं। वहीं अगर सरकार की मानें तो, नक्सली हमलों में धीरे-धीरे कमी आ रही है और नक्सल प्रभावित इलाके लगातार सिमटते जा रहे हैं।
चर्चा के प्रमुख बिंदु
1967 में शुरू हुई इस समस्या को हमारी सरकारें जड़ से मिटाने में अब तक पूरी तरह सफल क्यों नहीं रहीं हैं?
क्या तकनीकों से लैस हमारे सुरक्षा बल इस समस्या से निपटने में सक्षम नहीं हैं? या फिर हमारी सरकारों में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है?
गौर करें तो, नक्सलवाद परिस्थिति के कारण पैदा हुई एक समस्या है और इसकी पृष्ठभूमि सामाजिक सरोकार से जुड़ी है। लेकिन, बदलते समय के साथ इसके स्वरूप में भी बदलाव आया है और अपने नए अवतार में नक्सलवाद एक राजनीतिक समस्या बन गया है। ऐसे में सवाल है कि-
क्या नक्सलवाद की वजहों पर काम करने के बजाय सियासी दलों ने इसे शह दिया है?
सवाल यह भी है कि सरकार ने इससे निपटने के लिये क्या-क्या पहलें की हैं?
अगर सरकार की पहलें सही दिशा में नहीं हैं तो, इस समस्या का सही हल क्या है?
इस लेख के ज़रिये हम इन्हीं पहलुओं के बारे में जानने का प्रयास करेंगे।
नक्सलवाद की पृष्ठभूमि
‘नक्सलवादी विचारधारा’ एक आंदोलन से जुड़ी हुई है। 1960 के दशक में कम्युनिस्टों यानी साम्यवादी विचारों के समर्थकों ने इस आंदोलन का आरंभ किया था।
दरअसल, इस आंदोलन की शुरुआत पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग ज़िले के गाँव नक्सलबाड़ी से हुई थी, इसलिये यह नक्सलवादी आंदोलन के रूप में चर्चित हो गया।
इसमें शामिल लोगों को नक्सली कहा जाता है। आपको बता दें कि इस आंदोलन में शामिल लोगों को कभी-कभी माओवादी भी कहते हैं।
नक्सलवादी और माओवादी दोनों ही आंदोलन हिंसा पर आधारित हैं। लेकिन, दोनों में फर्क यह है कि नक्सलवाद बंगाल के नक्सलबाड़ी में विकास के अभाव और गरीबी का नतीजा है जबकि चीनी नेता माओत्से तुंग की राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित मुहिम को माओवाद का नाम दिया गया।
गौरतलब है कि दोनों ही आंदोलन के समर्थक भुखमरी, गरीबी और बेरोज़गारी से आजादी की मांग करते रहे हैं।
किसानों पर जमींदारों द्वारा अत्याचार और उनके अधिकारों को छीनना एक पुरानी प्रथा रही है और देश भर में इसके हजारों साक्ष्य मौजूद हैं। लिहाजा, नक्सलबाड़ी के तत्कालीन किसान भी इसी समस्या का सामना कर रहे थे।
आजादी के बाद भूमि सुधार की पहलें जरूर हुईं थीं। लेकिन, ये पूरी तरह कामयाब नहीं रहीं। नक्सलबाड़ी किसानों पर जमींदारों का अत्याचार बढ़ता चला गया और इसी के मद्देनजर किसान और जमींदारों के बीच ज़मीन विवाद पैदा हो गया। लिहाजा, 1967 में कम्युनिस्टों ने सत्ता के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की और यह अभी तक जारी है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चारु मजूमदार ने कानू सान्याल और जंगल संथाल के साथ मिलकर सत्ता के खिलाफ एक किसान विद्रोह कर दिया था। 60 के दशक के आखिर और 70 के दशक के शुरुआती दौर में, नक्सलबाड़ी विद्रोह ने शहरी युवाओं और ग्रामीण लोगों दोनों के दिलों में आग लगा दी थी। देखते ही देखते, इस तरह का आंदोलन बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में आम हो गया और धीरे-धीरे यह ओडिशा, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र तक में फैल गया। आजाद भारत में पहली बार किसी आंदोलन ने गरीब और भूमिहीन किसानों की मांगों को मजबूती दी जिसने तत्कालीन भारतीय राजनीति की तस्वीर बदलकर रख दी।
दरअसल, यह आंदोलन हिंसा पर आधारित है और इसमें धनवानों और सत्ता की मदद करने वालों की हत्या कर देना एक आम बात है। सच कहा जाए तो, अन्याय और गैर बराबरी से पैदा हुआ यह आंदोलन देश और समाज के लिये नासूर बन गया है। लेकिन, चिंता का विषय है कि हमारी सरकारें अभी तक इसकी काट नहीं ढूंढ सकी हैं।
नक्सलवाद के पूरी तरह खत्म नहीं होने के कारण
जैसा कि हमने पहले ही जिक्र किया कि नक्सलवाद अन्याय और गैर बराबरी के कारण पनपा है। देश में फैली सामाजिक और आर्थिक विषमता का एक नतीजा है यह आंदोलन। बात चाहे छत्तीसगढ़ के बस्तर और सुकमा की करें या ओडिशा के मलकानगिरी की, भुखमरी और कुपोषण एक सामान्य बात है। गरीबी और बेरोज़गारी के कारण एक निचले स्तर की जीवन शैली और स्वास्थ्य-सुविधा के अभाव में गंभीर बीमारियों से जूझते इन क्षेत्रों में असामयिक मौत कोई आश्चर्य नहीं। लेकिन, वहीं देश का एक तबका अच्छी सुख-सुविधाओं से लैस है। अमूमन यह कहा जाता है कि भारत ब्रिटिश राज से अरबपति राज तक का सफर तय कर रहा है। वहीं विश्व असमानता रिपोर्ट के अनुसार, भारत की राष्ट्रीय आय का 22 फीसदी भाग सिर्फ एक फीसद लोगों के हाथों में पहुँचता है और यह असमानता लगातार तेजी से बढ़ रही है।
अंतर्राष्ट्रीय अधिकार समूह Oxfam के मुताबिक भारत के एक फीसद लोगों ने देश के 73 फीसदी धन पर कब्जा किया हुआ है। यकीनन इस तरह की असमानताओं में हमेशा असंतोष के बीज होते हैं, जिनमें विद्रोह करने की क्षमता होती है।
यह भी एक सच्चाई है कि ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के अनुसार भ्रष्टाचार सूचकांक में पिछले तीन सालों में हम 5 पायदान फिसल गए हैं यानी कि देश में भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी हुईं हैं।
समझना होगा कि भ्रष्टाचार कई समस्याओं की जड़ है जो असंतोष का कारण बनते हैं। इसी साल मार्च महीने में हमने नासिक से मुंबई तक लंबी किसान यात्रा भी देखी। मंदसौर में पुलिस की गोली से पाँच किसानों की मौत की खबर ने भी चिंतित किया था। जाहिर है, कृषि में असंतोष गंभीर चिंता का कारण बन रही है।
ये सभी वो पहलू हैं जो गरीबों और वंचित समूहों में असंतोष बढ़ा रहे हैं और वे गरीबी और भुखमरी से मुक्ति के नारे बुलंद कर रहे हैं। इन्हीं असंतोषों की वजह से ही नक्सलवादी सोच को बढ़ावा मिल रहा है।
दूसरी तरफ, सरकार के कई प्रयासों के बावजूद अभी तक इस समस्या से पूरी तरह निजात नहीं मिलने की बड़ी वजह यह है कि हमारी सरकारें शायद इस समस्या के सभी संभावित पहलुओं पर विचार नहीं कर रही। हालाँकि, सरकार की पहलों से कुछ क्षेत्रों से नक्सली हिंसा का खात्मा जरूर हो गया है। लेकिन, अभी भी लंबा सफर तय करना बाकी है।
नक्सली हिंसा में कितनी कमी आई है?
नक्सली समस्या को लेकर ढेर सारी चुनौतियों के बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पहले के बरक्स कमी आई है।
गौरतलब है कि 2008 में 223 ज़िले नक्सल प्रभावित थे लेकिन, तत्कालीन सरकार के प्रयासों से इनमें कमी आई और 2014 में यह संख्या 161 रह गई। 2017 में नक्सल प्रभावित ज़िलों की संख्या और घटकर 126 रह गई।
गृह मंत्रालय की हालिया रिपोर्ट से पता चलता है कि 44 ज़िलों को नक्सल मुक्त घोषित कर दिया गया है जबकि 8 नए ज़िलों में नक्सली गतिविधियाँ देखी जा रही हैं। लिहाजा, नक्सल प्रभावित कुल ज़िलों की संख्या अब 90 हो गई है। ये सभी ज़िले देश के 11 राज्यों में फैले हैं जिनमें तीस सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित बताए गए हैं।
छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा और बिहार को सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित राज्यों की कैटेगरी में रखा गया है।
आँकड़ों पर गौर करें तो, पिछले एक दशक में नक्सली हिंसा में कमी आई है और कई ज़िलों को नक्सल गतिविधियों से मुक्त भी कराया गया है। लेकिन, गौर करने वाली बात है कि कई नए ज़िले ऐसे भी हैं जिनमें नक्सली गतिविधियाँ शुरू हो गई हैं।
इसी साल गृह मंत्रालय द्वारा जारी आँकड़ों के मुताबिक 8 ज़िले ऐसे हैं जहाँ पहली दफा नक्सली गतिविधियाँ देखी गई हैं। केरल में ऐसे तीन, ओडिशा में दो और छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश तथा आंध्र प्रदेश में एक-एक ज़िले पाए गए हैं।
ऐसे में यह सवाल तो उठता ही है कि जब एक तरफ नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के सिमटने के दावे हो रहे हैं तो, दूसरी तरफ नए ज़िलों को यह रोग क्यों लग रहा है? लिहाजा, इस पहलू पर भी ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है।
नक्सली समस्या से निपटने के लिये क्या-क्या सरकारी पहलें की गईं हैं-
नक्सल प्रभावित इलाकों में नक्सली समस्या से निपटने के लिये सरकार समय-समय पर काम करती रही है। हालाँकि, इन इलाकों में किसी परियोजना को सफलतापूर्वक पूरा करना हमेशा ही एक चुनौती रही है।
इंफ्रास्ट्रक्चर, सड़क, सेलफोन कनेक्टिविटी, पुल, स्कूल जैसे विकास कार्यों पर काम किया जाता रहा है।
नक्सल प्रभावित इलाकों में अब तक हजारों की तादाद में मोबाईल टॉवर लगाए जा चुके हैं जबकि कई हज़ार किलोमीटर सड़क का निर्माण भी हो चुका है।
सबसे अधिक नक्सल प्रभावित सभी 30 ज़िलों में जवाहर नवोदय विद्यालय और केंद्रीय विद्यालय संचालित किये जा रहे हैं लेकिन, गौर करने वाली बात है कि ये सभी तीस ज़िले अभी भी सर्वाधिक नक्सल प्रभावित हैं।
जून, 2013 में आजीविका योजना के तहत ‘रोशनी’ नामक विशेष पहल की शुरूआत की गई थी ताकि सर्वाधिक नक्सल प्रभावित ज़िलों में युवाओं को रोज़गार के लिये प्रशिक्षित किया जा सके। लेकिन मार्च, 2015 तक सिर्फ दो राज्यों बिहार और झारखंड को ही फंड आवंटित किया जा सका।
पिछले ही साल, केंद्रीय मंत्री ने नक्सलवाद को खत्म करने के लिये ‘समाधान’ नामक 8 सूत्री पहल की घोषणा की है। इसके तहत नक्सलियों से लड़ने के लिये रणनीतियों और कार्ययोजनाओं पर जोर दिया गया है।
हालाँकि, समय-समय पर सभी सरकारों ने इस समस्या से निपटने के लिये कोशिशें तो की हैं लेकिन, फिर भी इस पर पूरी तरह कामयाबी नहीं मिल सकी है।
आगे की राह
दरअसल, अपने वर्तमान रूप में नक्सल आंदोलन ने अपनी प्रकृति और उद्देश्य दोनों में महत्त्वपूर्ण रूप से बदलाव किया है।
एक तरफ जहाँ इस समस्या की वजह आर्थिक और सामाजिक विषमता समझी जाती रही है, वहीं दूसरी ओर इसे अब एक राजनीतिक समस्या भी समझा जाने लगा है।
हालिया छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में नक्सल समस्या पर राजनीतिक बयानबाजी इसी का एक पहलू है। यही कारण है कि जानकारों की नज़रों में नक्सलवाद सियासी दलों का एक ‘चुनावी तवा’ है जिस पर मौका मिलते ही रोटी सेंकने की कोशिश की जाती है।
ऐसा इसलिये भी कहा जाता है क्योंकि, हमारी सरकारें लगातार संविधान की पाँचवीं अनुसूची को तरजीह देने से कतराती रही हैं। गौरतलब है कि इस अनुसूची में अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण से जुड़े मामले आते हैं।
चिंता का विषय है कि आजादी के 70 सालों बाद भी अब तक अनुसूचित क्षेत्रों को प्रशासित करने के लिये कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
पाँचवीं अनुसूची के तहत अनुसूचित क्षेत्रों में Tribes Advisory Council की स्थापना की बात की गई। दरअसल, इन क्षेत्रों में Advisory Council एक तरह की पंचायत है जो आदिवासियों को अपने क्षेत्रों में प्रशासन करने का अधिकार देती है। इस कौंसिल में अधिकतम 20 सदस्य होते हैं जिनके तीन-चौथाई सदस्य वे होते हैं जो संबंधित राज्य की विधान सभा में अनुसूचित क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
आदिवासियों को अधिकार नहीं मिलने के कारण भी इनमें असंतोष पनपता है और नक्सली इसी का फायदा उठाकर आदिवासियों को गुमराह करते हैं।
इसी तरह 1996 के पेसा अधिनियम; Tribal Acts; BRGF यानी Backward Region Grant Fund जैसे कार्यक्रमों को सही रूप से लागू करने की ज़रूरत है। BRGF पंचायती राज मंत्रालय का एक कार्यक्रम है जो गोवा को छोड़कर देश के 272 चिन्हित पिछड़े ज़िलों में विकास की विषमता को खत्म करने के लिये बनाया गया है।
इसके अलावा एक समस्या राज्यों के बीच तालमेल की कमी को लेकर है। इसके तहत दो सीमावर्ती राज्यों को नक्सली घटनाओं के मद्देनजर बेहतर सहयोग के साथ काम करने की ज़रूरत है।
इन सब उपायों के बावजूद, हमारी सरकारों को कतई नहीं भूलना चाहिये कि नक्सलवाद के मूल कारण कुछ और हैं। गरीबी, भुखमरी और बेरोज़गारी जैसे मसलों पर जब तक युद्ध स्तर पर काम नहीं होगा, तब तक इस समस्या से निजात नहीं मिल सकती।
हिंसा की घटनाओं के साथ-साथ ग्रामीणों के अधिकारों और उनकी समस्याओं को भी प्रकाश में लाने की ज़रूरत है। स्थानीय लोगों को भरोसे में लेना और हथियार उठा चुके लोगों से बात कर मसले का हल निकालने की कोशिश करनी होगी।
गरीबी और भुखमरी जैसे मुद्दों पर ज़ोर देने का यह कतई मतलब नहीं है कि ऐसा करना हिंसा का समर्थन करना है लेकिन, क्या यह जरूरी नहीं है कि हर व्यक्ति को संवैधानिक हक मिले? समझना होगा कि हर व्यक्ति सम्मान के साथ रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी ज़रूरत पाने का हकदार है। लिहाजा, इसकी पहल करना हर सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिये।
सोमवार, मार्च 29, 2021
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