कहतें हैं.. बंधनों के कई रूप होते हैं... सात फेरों का बंधन,
सात जन्मों का बंधन जन्मों जन्मों का बंधन...पर एक बंधन और भी होता है....
मन से मन का बंधन...!!!
रेशम सा... बहतें नीर सा..
हवाओं मे बहता सा.. महकते इत्र सा..
बांधे एक ही.. डोर से.. मन से मन को....
हर भीड़ मे तलाशती.. एक दूसरें को..
उस नाम को.. उसके लिखे शब्दों को...
यही तो है.. मन से मन का बन्धन !!!
देखते सुनते... जाने कब..
कैसे.. खुद की आत्मा ... मन..
और मौन... मिल से ज़ातें हैं...
बंध से जाते हैं...और फिर...
प्रेम हो जाता है.. बस हो जाता है...
एक दूसरें को...मन से मन को..
शायद इस बंधन मे... कोई अग्नि साक्षी नही..
हवन नही.. कोई सात वचन नही...
पर सबसे निकट..
अलग है ये..!!!
न बांधने की चाहत..
न छूटने का मन.. बस ऐसा है ये..
मन से मन का बंधन !!!