रविवार, अप्रैल 23, 2023

बस कहानी रह गई


बस कहानी रह गई.....

तब हमारे गाँव में कॉलेज नही था l इस कारण मैं पढ़ने के लिए में शहर आया था । यह किसी रिश्तेदार का एक कमरे का मकान था। बिना किराए का था। आस-पास सब गरीब लोगो के घर थे। और में अकेला था, सब काम मुझे खुद ही करने पड़ते थे। खाना-बनाना, कपड़े धोना, घर की साफ़-सफाई करना।

कुछ दिन बाद एक गरीब लडकी अपने छोटे भाई के साथ मेरे घर पर आई। आते ही सवाल किया "तुम मेरे भाई को ट्यूशन दे सकते हो क्या ?"

मेंने कुछ देर सोचा फिर कहा "नही"

उसने कहा "क्यूँ?

मैंने कहा "टाइम नही है। मेरी पढ़ाई डिस्टर्ब होगी।"

उसने कहा "बदले में मैं तुम्हारा खाना बना दूँगी।"

शायद उसे पता था की मैं खाना खुद पकाता हूं l

मैंने कोई जवाब नही दिया तो वह और लालच दे कर बोली, बर्तन भी साफ़ कर दूंगी।"

अब मुझे भी लालच आ ही गया, मैंने कहा-"कपड़े भी धो दो तो पढ़ा दूँगा।"

वो मान गई।

इस तरह से उसका रोज घर में आना-जाना होने लगा।

वो काम करती रहती और मैं उसके भाई को पढ़ाता रहाता। ज्यादा बात नही होती।

उसका भाई आठवीं कक्षा में था। खूब होशियार था। इस कारण ज्यादा माथा-पच्ची नहीं करनी पड़ती थी।

कभी-कभी वह घर की सफाई भी कर दिया करती थी।

दिन गुजरने लगे। एक रोज शाम को वो मेरे घर आई तो उसके हाथ में एक बड़ी सी कुल्फी थी।

मुझे दी तो मैंने पूछ लिया, कहाँ से लाई हो ?

उसने कहा "घर से, आज बरसात हो गई तो कुल्फियां नहीं बिकी।"

इतना कह कर वह उदास हो गई।

मैंने फिर कहा:-" मग़र तुम्हारे पापा तो समोसे-कचोरी का ठेला लगाते हैं ?

उसने कहा- वो सर्दियों में समोसे-कचोरी और गर्मियों में कुल्फी।

और आज बरसात हो गई, तो कुल्फी नही बिकी l मतलब ठण्ड के कारण लोग कुल्फी नही खाते।

"ओह" मैंने गहरी साँस छोड़ी।

मैंने आज उसे गौर से देखा था। गम्भीर मुद्रा में वो उम्र से बडी लगी। समझदार भी, मासूम भी।

धीरे-धीरे वक़्त गुजरने लगा। मैं कभी-कभार उसके घर भी जाने लगा। विशेषतौर पर किसी त्यौहार या उत्सव पर। कई बार उससे नजरें मिलती तो मिली ही रह जाती। पता नही क्यूँ ?

ऐसे ही समय बीतता गया इस बीच कुछ बातें मैंने उसकी भी जान ली। कि वो बूंदी बाँधने का काम करती है। बूंदी मतलब किसी ओढ़नी या चुनरी पर धागे से गोल-गोल बिंदु बनाना। बिंदु बनाने के बाद चुनरी की रंगाई करने पर डिजाइन तैयार हो जाती है। 

मैंने बूंदी बाँधने का काम करते उसे बहुत बार देखा था। एक दिन मैंने उसे पूछ लिया "ये काम तुम क्यूँ करती हो?"

वह बोली:-"पैसे मिलते हैं।"

"क्या करोगी पैसों का?"

"इकठ्ठे करती हूँ।"

"कितने हो गए?"

"यही कोई छः-सात हजार।"

"मुझे हजार रुपये उधार चाहिए। जल्दी लौटा दूंगा।" मैंने मांग लिए।

उसने सवाल किया:-"किस लिए चाहिए?"

"कारण पूछोगी तो रहने दो।" मैंने मायूसी के साथ कहा।

वो बोली अरे मैंने तो "ऐसे ही पूछ लिया। तुम माँगो तो सारे दे दूँ।" उसकी ये आवाज़ अलग सी जान पड़ी। मग़र मैं उस वक़्त कुछ समझ नही पाया। पैसे मिल रहे थे उन्हीं में खोकर रह गया। एक दोस्त से उधार लिए थे । कमबख्त दो - तीन बार माँग चुका था।

एक रोज मेरी जेब में गुलाब की टूटी पंखुड़ियाँ निकली। मग़र तब भी मैं यही सोच कर रह गया कि कॉलेज के किसी दोस्त ने चुपके से डाल दी होगी। उस समय इतनी समझ भी नही थी। 

एक दिन कॉलेज की मेरी एक दोस्त मेरे घर आई कुछ नोट्स लेने। मैंने दे दिए।

और वो मेरे घर के बाहर खडी थी और मेरी दोस्त को देखकर बाहर से ही तुरंत वापिस घर चली गई। और फ़िर दूसरे दिन दोपहर में ही आ धमकी। 

आते ही कहा "मैं कल से तुम्हारा कोई काम नही करूंगी।"

मैने कहा "क्यूँ?

काफी देर तो उसने जवाब नही दिया। फिर धोने के लिए मेरे बिखरे कपड़े समेटने लगी।

मैने कहा "कहीं जा रही हो?"

उसने कहा "नही। बस काम नही करूंगी।

और मेरे भाई को भी मत पढ़ाना कल से।"

मैने कहा अरे "तुम्हारे हजार रूपये कल दे दूंगा। कल घर से पैसे आ रहे हैं।" मुझे पैसे को लेकर शंका हुई थी। इस कारण पक्का आश्वासन दे दिया।

उसने कहो "पैसे नही चाहिए मुझे।"

मैने कहा "तो फिर ?"

मैने आँखे उसके चेहरे पर रखी और उसने एक बार मुझसे नज़र मिलाई तो लगा हजारों प्रश्न है, उसकी आँखों में। मग़र मेरी समझ से बाहर थे।

उसने कोई जवाब नही दिया। मेरे कपड़े लेकर चली गई। अपने घर से ही घोकर लाया करती थी।

दूसरे दिन वह नही आई। न उसका भाई आया।

मैंने जैसे-तैसे खाना बनाया। फिर खाकर कॉलेज चला गया। दोपहर को आया तो सीधा उसके घर चला गया। यह सोचकर की कारण तो जान लू, काम नही करने का।

उसके घर पहुंचा तो पता चला की वो बीमार है। एक छप्पर में चारपाई पर लेटी थी अकेली। घर में उसकी मम्मी थी जो काम में लगी थी।

मैं उसके पास पहुंचा तो उसने मुँह फेर लिया करवट लेकर।

मैंने पूछा:-" दवाई ली क्या?"

"नही।" छोटा सा जवाब दिया बिना मेरी तरफ देखे।

मैने कहा "क्यों नही ली?

उसने कहा "मेरी मर्ज़ी। तुम्हें क्या?

"मुझसे नाराज़ क्यूँ हो ये तो बता दो।"

"तुम सब समझते जवाब दिया बिना मेरी तरफ देखे।

मैने कहा "क्यों नही ली?

उसने कहा "मेरी मर्ज़ी। तुम्हें क्या?

"मुझसे नाराज़ क्यूँ हो ये तो बता दो।"

"तुम सब समझते हो, फिर मैं क्यूँ बताऊँ।"

"कुछ नही पता। तुम्हारी कसम। सुबह से परेशान हूँ। बता दो।"

" नही बताउंगी। जाओ यहाँ से।" इस बार आवाज़ रोने की थी।

मुझे जरा घबराहट सी हुई। डरते-डरते उसके हाथ को छूकर देखा तो मैं उछल कर रह गया। बहुत गर्म था।

मैंने उसकी मम्मी को पास बुलाकर बताया। फिर हम दोनों उसे हॉस्पिटल ले गए।

डॉक्टर ने दवा दी और एडमिट कर लिया। कुछ जाँच वगैरह होनी थी।

क्यूंकि शहर में एक दो डेंगू के मामले आ चुके थे।

मुझे अब चिंता सी होने लगी थी।

उसकी माँ घर चली गई। उसके पापा को बुलाने।

मैं उसके पास अकेला था।

बुखार जरा कम हो गया था। वह गुमसुम सी लेटी थी। दीवार को घूर रही थी एकटक!!

मैंने उसके चैहरे को सहलाया तो उसकी आँखों में आँसू आ गए और मेरे भी।

मैंने भरे गले से पूछा:- "बताओगी नही?"

उसने आँखों में आँसू लिए मुस्कराकर कहा:-" अब बताने की जरूरत नही है। पता चल गया है कि तुम्हें मेरी परवाह है। है ना?"

मेरे होठों से अपने आप ही एक अल्फ़ाज़ निकला "बहुत"

उसने कहा "बस! अब मैं मर भी जाऊँ तो कोई गिला नही।" उसने मेरे हाथ को कस कर दबाते हुए कहा।

उसके इस वाक्य का कोई जवाब मेरे लबों से नही निकला। मग़र आँखे थी जो जवाब को संभाल न सकी। बरस पड़ी।

वह उठ कर बैठ गई और बोली रोता क्यूँ है पागल?

मैने जिस दिन पहली बार तुम्हारे लिए रोटी बनाई थी, उसी दिन से चाहती हूँ तुम्हें। एक तुम थे पागल । कुछ समझने में इतना वक़्त ले गये।"

फिर उसने अपने साथ मेरे आँसू भी पोछे। फिर थोडी देर बाद उसके घर वाले आ गए।

रात हो गई थी। उसकी हालत में कोई सुधार नही हुआ।

फिर देर रात तक उसकी बीमारी की रिपोर्ट आ गई। बताया गया की उसे डेंगू है।

और ये जान कर आग सी लग गई मेरे सीने में।

खून की कमी हो गई थी उसे।

पर भगवान का शुक्र है कि मेरा खून मैच हो गया था।

दो बोतल खून दिया मैंने, तो जरा सुकून सा मिला दिल को।

उस रात वह अचेत सी रही।

बार-बार अचेत अवस्था में उल्टियाँ कर देती थी।

मैं एक मिनट भी नही सोया उस रात।

डॉक्टरों ने दूसरे दिन बताया कि रक्त में प्लेटलेट्स की संख्या तेजी से कम हो रही है। खून और देना होगा। डेंगू का वायरस खून का थक्का बनाने वाली प्लेटलेट्स पर हमला करता हैं । अगर प्लेटलेट्स खत्म तो पुरे शरीर के अंदरुनी अंगों से ख़ून का रिसाव शुरू हो जाता है। फिर बचने का कोई चांस नही।

मैंने अपना और खून देने का आग्रह किया l मग़र रात को दिया था इस कारण डाक्टर ने मना कर दिया ।

फिर मैंने मेरे कॉलेज के दो-चार दोस्तों को बुलाया। साले दस एक साथ आ गए। खून दिया। हिम्मत बंधाई। पैसों की जरूरत हो तो देने का आश्वासन दिया और चले गए।

उस वक़्त पता चला दोस्त होना भी कितना जरूरी है। पैसों की कमी नही थी। घर से आ गए थे।

दूसरे दिन की रात को वो कुछ ठीक दिखी। बातें भी करने लगी।

रात को सब सोए थे। मैं उसके पास बैठा जाग रहा था।

उसने मुझसे कहा "पागल बीमार मैं हूँ तुम नही। फिर ऐसी हालत क्यों बना ली है तुमने?"

मैंने कहा "तुम ठीक हो जा। मैं तो नहाते ही ठीक हो जाऊंगा।"

उसने उदास होकर पूछा "एक बात बताओ ?"

मैने कहा "क्या ?"

उसने कहा "मैंने एक दिन तुम्हारी जेब में गुलाब डाला था तुम्हें मिला ?

मैने कहा "हां" सिर्फ पंखुड़ियाँ मिली थी I 

उसने कहा "कुछ समझे थे?"

"नही"

"क्यूँ?"

"सोचा था कॉलेज के किसी दोस्त ने मज़ाक किया होगा"

"और वो रोटियाँ?"

"कौन सी?"

"दिल के आकार वाली।"

"अब समझ में आ रहा है।"

"बुद्दू हो"

"हाँ"

फिर वह हँसी। काफी देर तक। निश्छल मासूम हंसी।

"कल सोए थे क्या?"

"नही।"

"अब सो जाओ। मैं ठीक हूँ मुझे कुछ न होगा।"

सचमुच नींद आ रही थीं।

मग़र मैं सोया नही।

मग़र वह सो गई।

फिर घंटे भर बाद वापस जाग गई।

मैं ऊंघ रहा था।

"सुनो।"

"हाँ। मैं नींद में ही बोला।

"ये बताओ ये बीमारी छूने से किसी को लग सकती है क्या?"

"नही, सिर्फ एडीज मच्छर के काटने से लगती है।"

"इधर आओ।"

मैं उसके करीब आ गया।

"एक बार गले लग जाओ। अगर मर गई तो ये आरज़ू बाकी न रह जाए।"

"ऐसा ना कहो प्लीज।" मैं इतना ही कह पाया।

फिर वो मुझसे काफी देर तक लिपटी रही और सो गई।

फिर उसे ढंग से लिटाकर मैं भी एक खाली बेड पर सो गया।

सुबह मैं तो उठ गया लेकिन..
....….…वह सदा के लिए सो गई।


श्रीमंत डब्यातील गरीब माणसे.......

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