सफेद कुर्ते में अभिनेता दिलीप कुमार ताजमहल से निकलते हैं। उनके पीछे अभिनेत्री वैजयंती माला आसमानी सूट में दौड़ती हुई आती हैं और रफी साहब की आवाज में गाना बजता है…
‘एक शहंशाह ने बनवा के हंसी ताजमहल, सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है।
इसके साये में सदा प्यार के चर्चे होंगे, खत्म ना हो सके, ऐसी कहानी दी है।’
इस शहंशाह का नाम शाहजहां है और उनकी मोहब्बत का नाम है - अर्जुमंद बानो बेगम। दुनिया उन्हें मुमताज के नाम से जानती है। 17 जून 1631 यानी आज ही के दिन मुमताज की मौत हुई थी। उस वक्त वो महज 38 साल की थीं और उसी दिन उन्होंने अपने 14वें बच्चे को जन्म दिया था।
दिल्ली के मीना बाजार में प्यार होने से, जंग में शाहजहां के साथ जाने और मौत के बाद तीन बार दफनाए जाने तक, आज मुमताज बेगम की पूरी कहानी जानेंगे...
मीना बाजार का हीरा, जो बेशकीमती हो गया
अकबर के बेटे जहांगीर के घर 1592 में एक बेटा पैदा हुआ। नाम रखा गया खुर्रम (जिन्हें शाहजहां के नाम से जाना गया)। राजशाही ठाठ में बड़े हो रहे खुर्रम शायरी और संगीत के शौकीन थे। तब चलन था कि सालाना नए साल की खुशी में मीना बाजार सजेगा और उसकी आमदनी गरीबों में बांटी जाएगी।
साल 1607 के नए साल पर बाजार सजा। दुकानें लगीं और औरतें रेशम और कांच की मोतियों, जेवर, मसाले बेचने बैठीं। मीना बाजार में औरतें बेनकाब बैठी थीं, इसलिए मर्दों के आने की मनाही थी। सिर्फ शहंशाह जहांगीर और शहजादे खुर्रम ही वहां जा सकते थे।
मीना बाजार में घूमते हुए शहजादे खुर्रम ने देखा कि एक लड़की कीमती पत्थरों और रेशम के कपड़ों की दुकान सजा कर बैठी है। कपड़ों में तह लगाने का तौर देखकर शहजादे खुर्रम उसे दिल दे बैठे।‘एक शहंशाह ने बनवा के हंसी ताजमहल, सारी दुनिया को मोहब्बत की निशानी दी है।
इसके साये में सदा प्यार के चर्चे होंगे, खत्म ना हो सके, ऐसी कहानी दी है।’
इस शहंशाह का नाम शाहजहां है और उनकी मोहब्बत का नाम है - अर्जुमंद बानो बेगम। दुनिया उन्हें मुमताज के नाम से जानती है। 17 जून 1631 यानी आज ही के दिन मुमताज की मौत हुई थी। उस वक्त वो महज 38 साल की थीं और उसी दिन उन्होंने अपने 14वें बच्चे को जन्म दिया था।
दिल्ली के मीना बाजार में प्यार होने से, जंग में शाहजहां के साथ जाने और मौत के बाद तीन बार दफनाए जाने तक, आज मुमताज बेगम की पूरी कहानी जानेंगे...
मीना बाजार का हीरा, जो बेशकीमती हो गया
अकबर के बेटे जहांगीर के घर 1592 में एक बेटा पैदा हुआ। नाम रखा गया खुर्रम (जिन्हें शाहजहां के नाम से जाना गया)। राजशाही ठाठ में बड़े हो रहे खुर्रम शायरी और संगीत के शौकीन थे। तब चलन था कि सालाना नए साल की खुशी में मीना बाजार सजेगा और उसकी आमदनी गरीबों में बांटी जाएगी।
साल 1607 के नए साल पर बाजार सजा। दुकानें लगीं और औरतें रेशम और कांच की मोतियों, जेवर, मसाले बेचने बैठीं। मीना बाजार में औरतें बेनकाब बैठी थीं, इसलिए मर्दों के आने की मनाही थी। सिर्फ शहंशाह जहांगीर और शहजादे खुर्रम ही वहां जा सकते थे।
मीना बाजार में घूमते हुए शहजादे खुर्रम ने देखा कि एक लड़की कीमती पत्थरों और रेशम के कपड़ों की दुकान सजा कर बैठी है। कपड़ों में तह लगाने का तौर देखकर शहजादे खुर्रम उसे दिल दे बैठे।
कैरोलीन अर्नोल्ड और मेडेलीन कोमुरा ने अपनी किताब 'ताजमहल' में इस घटना का जिक्र किया है। शहजादे खुर्रम ने लड़की की दुकान के पास जाकर एक हीरा उठाया और कहा, ‘इस पत्थर की क्या कीमत है?’
लड़की ने झल्ला कर कहा, ‘ये हीरा आपको पत्थर नजर आता है? पूरे 10 हजार का है।’
शहजादे खुर्रम ने जवाब में कहा, ‘इस पर आपका हाथ लग गया है इसलिए ये बेशकीमती हो गया है। अगली मुलाकात तक मैं इसे दिल के पास रखूंगा।‘
लड़की का नाम था अर्जुमंद बानू बेगम जो बाद में मुमताज महल कहीं गईं। शहजादे खुर्रम ने महल आकर ऐलान किया कि उन्हें इस लड़की से निकाह करना है। पिता जहांगीर ने पता लगाने को कहा। तफ्तीश के बाद मालूम हुआ कि अर्जुमंद बानू तो उनके वकील आसफ खां की बेटी है। इस वक्त मुमताज 14 साल की थीं।
मुमताज के अलावा भी शाहजहां ने की दो और शादियां
शाहजहां से मिलने के बाद मुमताज का निकाह होने में पांच साल लग गए। जहांगीर ने सगाई तो 1607 में ही करा दी मगर दरबारी ज्योतिषियों ने शुभ मुहूर्त के लिए पांच साल इंतजार करने के लिए कहा।
इस बीच 1610 में शहजादी कंधारी के साथ शाहजहां की शादी हुई। 1612 में मुमताज से शादी के बाद 1617 में भी शाहजहां की एक और शादी हुई थी। हालांकि दरबार के इतिहासकारों ने इसको राजनीतिक गठबंधन बताया।
दरबार के इतिहासकार इनायत खान ने जब शाहजहांनामा लिखी तो उसमें कहा, ‘दूसरी महिलाओं के लिए शाहजहां ने जो प्रेम दिखाया वो मुमताज के लिए उनके प्यार का एक हजारवां हिस्सा भी नहीं था।’
मुमताज से शादी और शाहजहां की खुशी
शाहजहां और मुमताज की शादी 1612 में हुई। मोइन उल आसार में इस शादी का जिक्र करते हुए लिखा गया है कि जहांगीर ने अपने हाथों से दूल्हे के सेहरे पर मोतियों का हार बांधा और पांच लाख मेहर की रकम तय की। शादी के वक्त मुमताज की उम्र 19 साल थी और शाहजहां की उम्र 20 साल।
जहांगीर ने इस शादी का जिक्र करते हुए जहांगीरनामा में लिखा है-
‘मैंने इत्तिकाद खान की बेटी का हाथ खुर्रम के लिए मांगा था। शादी का जलसा भी हो गया था तो गुरुवार 18 तारीख को मैं इत्तिकाद के घर गया। वहां एक दिन और एक रात ठहरा। खुर्रम (शाहजहां) ने मुझे तोहफे पेश किए। उसने बेगमों को, अपनी मां और सौतेली मांओं को हीरे-जवाहरात दिए। खुर्रम ने हरम में काम करने वाली औरतों को भी हीरे-जवाहरात दिए।’
शाहजहां को सत्ता मिली और मुमताज बन गईं बेगम
साल 1628 में शाहजहां ने गद्दी संभाली। इस खुशी में एक करोड़ अस्सी लाख रुपए और चार लाख बीघा जमीन दान की गई। 38 साल की उम्र में राजा बनते ही शाहजहां ने मुमताज को पादशाह बेगम (महिला शहंशाह) की उपाधि दी।
इसके अलावा मल्लिका-ए-जहां (दुनिया की रानी), मल्लिक- उज-जमा (जमाने की रानी), मल्लिका-ए-हिंद (हिंदुस्तान की रानी) आदि कई उपाधियां दीं। मुमताज को कई ऐसी सुविधाएं दी गईं जो आज तक किसी भी रानी को नहीं दी गई थीं।
हाथीदांत पर सोने की पत्ती के साथ बनाई गई यह पेंटिग साल 1860 में बनी थी। इसमें मुमताज अपनी सहायिका के साथ दिखाई गई हैं।शाहजहां मुमताज को कितना मानते थे इस बात का पता इसी से चलता है कि दूसरी बेगम को सालाना छह लाख रुपए ही देना तय हुआ। शाहजहां ने खुशी में मुमताज को दो लाख अशर्फियों का इनाम भी दिया। साथ ही सालाना 10 लाख रुपए देने की घोषणा की। ये पैसे आज के 50 करोड़ रुपए जितने हैं।
मुमताज और शाहजहां 19 साल तक साथ रहे। 1628 में शहजहां के गद्दी पर बैठने के चार साल के भीतर ही मुमताज का असमय निधन हो गया। 19 सालों में उनके 14 बच्चे हुए। इनमें आठ बेटे और छह बेटियां थीं। सात की मौत जन्म के समय या कुछ साल बाद हो गई। बाकी बच्चों में दाराशिकोह, औरंगजेब और जहां आरा का नाम इतिहास में दर्ज हुआ।
जंग में भी मुमताज का साथ नहीं छोड़ पाते थे शाहजहां
मुमताज अकसर शाहजहां के साथ जंग वाले इलाकों तक जाती रहीं। यहां तक कि मुमताज के पिता ने जब बगावत की तो मुमताज शाहजहां के साथ दौरे करती रहीं। इसी तरह दक्कन की तरफ से हो रही बगावत का सामना करने शाहजहां के साथ मुमताज भी गईं। वो गर्भवती थीं और अचानक उन्हें प्रसव पीड़ा होने लगी।
इस तस्वीर में शाहजहाँ अपनी बीमार बेगम मुमताज महल को गोद में लिए हुए हैं।तीस घंटे लगातार प्रसव पीड़ा के बाद 17 जून 1631 को दक्कन के इलाके (अब मध्यप्रदेश के बुरहानपुर) में अधिक खून बहने से मुमताज की मौत हो गई। उस वक्त शाहजहां वहां मौजूद नहीं थे। मुमताज को अस्थायी तौर पर बुरहानपुर के एक बागीचे में दफना दिया गया।
शाहजहां ने दो साल के शोक का ऐलान किया और खुद एक कमरे में बंद हो गए। शाहजहां पूरे सप्ताह कमरे में बंद रहे। कहा जाता है कि वो आगे दो सालों तक बुधवार को सफेद कपड़े पहनते थे।
शाहजहां के राजा बनने के पहले ही मुमताज ने उनसे कुछ वादे ले लिए थे। ताजमहल बनवाना उनमें से एक था। शाहजहां से मुमताज ने यह भी वादा लिया कि हर साल बरसी पर वो मकबरे पर जाएंगे।
मुमताज का आखिरी वादा शाहजहां पूरा नहीं कर सके। औरंगजेब ने सत्ता पाने के लिए उन्हें कैद कर दिया जहां से वो बाकी का जीवन एक खिड़की से ताजमहल देखते हुए बिताते रहे।
तीसरी बार ताजमहल में दफनाई गईं मुमताज
मुमताज को पहली बार आनन-फानन मे बुरहानपुर में तापी नदी के किनारे दफनाया गया। वहां से तकरीबन छह महीने बाद उनके शव को आगरा लाया गया और जनवरी 1632 में यमुना किनारे दफनाया गया। यहां शाहजहां ने मकबरा बनवाया और इसी जगह को ताजमहल कहा जाने लगा। बाद में जब ताजमहल बन गया तो मुमताज की कब्र वहीं बनाई गई।
बुरहानपुर जहां मुमताज महल को पहली बार दफनाया गया। यहां से दिसंबर 1631 में मुमताज के शव को उनके बेटे शाह शुजा, उनके डॉक्टर और उनकी दासी के साथ आगरा लाया गया।अब किस्सा ताजमल के बनने का…
शाहजहां के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी कि ताजमहल बनेगा कहां? बहुत जद्दोजहद के बाद शाहजहां ने तय किया कि वो जगह शांत और शहर से दूर होगी। वहां से किला दिखेगा और यमुना बगल से गुजरेगी ताकि पौधों को पानी वगैरह समय पर मिलता रहे। अंत में शाहजहां ने किले से 1.5 मील दूर जगह चुनी।
ताजमहल के आस पास क्या है, इस ग्राफिक्स में समझा जा सकता है।इसे साल 1632 में बनाना शुरू किया गया और लगभग 20 साल बाद यह साल 1653 में बनकर तैयार हुआ। 42 एकड़ की जमीन चुन कर इसकी मीनारों का स्ट्रक्चर तय किया गया और इसे बनाने के लिए दुनिया भर से 20 हजार मजदूर बुलाए गए।
कन्नौज के मजदूरों ने बनाया ताजमहल, कश्मीर से आए बाग बनाने वाले
जिस साल ताजमहल बन रहा था उसी समय पीटर मंडी नाम के एक ट्रैवलर भारत आए। अपने यात्रा वृतांत में उन्होंने ताजमहल के बनने का जिक्र करते हुए लिखा है कि उस इलाके को साफ कर जमीन समतल कराई गई। हजारों मजदूरों ने दिन रात काम करके गहरी नींव खोदी और ध्यान रखा कि यमुना का पानी इस तरफ न आए। इसके बाद 970 फीट लंबा और 364 फीट चौड़ा चबूतरा बना जिस पर मकबरा बनाया गया।
इसमें लगे संगमरमर मकराना से मंगाए गए। संगमरमरों के लिए विशेष गाड़ी बनाई गई जिसे 25-30 मवेशी खींचते थे। बैलों और लंबे सींग वाले भैसों के सहारे उन्हें 200 मील दूर आगरा लाया गया।
शाहजहां की जीवनी में फर्गुस निकोल ने लिखा है कि इसे बनाने वाले अधिकतर मजदूर कन्नौज के थे। नक्काशी करने वाले पोखरा से और बाग बनाने की जिम्मेदारी कश्मीर के मजदूरों के हाथ थी।
ताजमहल के देख-रेख का खर्च आस पास के गांवों के जिम्मे
ताजमहल में 40 तरह के रत्न लगाए गए। नीले पत्थर अफगानिस्तान से, हरे रंग के पत्थर चीन से और फिरोजा तिब्बत से मंगाए गए थे। यहां तक कि लहसुनिया पत्थरों को मिस्र के नील घाटी से मंगाया गया था।
ताजमहल के भीतर लगे लाल पत्थर। नीलम के पत्थरों को अशुभ कह कर बहुत कम यूज किया गया।इसे बनाने में उस समय के हिसाब से 4 करोड़ रुपए खर्च किए गए। इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी ने मजदूरों को दिए गए मेहनताने और यात्रा खर्च का जिक्र करते हुए लिखा है कि 50 लाख रुपए खर्च हुए। उसमें लगने वाले रत्नों और अन्य खर्चों को मिला देने पर यह राशि चार करोड़ के आसपास होती है। ये आज के तकरीबन 50 अरब रुपयों के बराबर होगी।
ताजमहल के बनने में खर्च हुआ सारा पैसा आगरा प्रांत के सरकारी खजाने से चुकाया गया। आगरा के आस पास के तीस गांव से मिलने वाली मालगुजारी का इस्तेमाल रखरखाव में करने का आदेश हुआ।
ताजमहल निहारते हुए दुनिया को अलविदा कह गए शाहजहां
ताजमहल बनने के पांच साल के भीतर ही गद्दी को लेकर जंग छिड़ी रही और 1659 में औरंगजेब ने अपने पिता को गद्दी से उतार दिया। उन्हें किले में नजरबंद कर दिया गया। अपने कमरे की खिड़की से वो हर वक्त चांद देखते रहते और फिर लगभग सात साल बाद जनवरी 1666 में शाहजहां ने ताजमहल देखते-देखते दुनिया को अलविदा कह दिया। शाहजहां को भी मुमताज की कब्र के बगल में ताजमहल के भीतर ही दफना दिया गया।
मुमताज और शाहजहां की कब्र।
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